जब किसी लिखने वाले की
हत्या हो जाती है,
थर्राते है पेड़ पौधे, रौशनी
कम हो जाती है |
लिखने वाला लिखता है, बुराई
से भिड़ता है,
मानवता का ध्वज लिए,
रुढ़िवाद से लढता है,
जब जुर्म की गोलिया सीना
पार हो जाती है,
लिखावट हर हर्फ़ की धुंदली
हो जाती है,
जब किसी लिखने वाले की
हत्या हो जाती है..
‘सच्चे का बोलबाला झूठे का
मुँह काला’
निडर हो के जब लिखता है
लिखने वाला
आंधियां सितम की चल कर उस पर
आती है,
धरती सूरज की तरफ और बढ़
जाती है,
जब किसी लिखने वाले की
हत्या हो जाती है..
रुन्दती है जनता पर बांधती
जुबां पे ताला है,
लिखने वाले के लिए हमेशा
जहर का प्याला है,
अभिव्यक्ति जहाँ पैरोतले
रौंदी जाती है,
मुरझा जाते है कागज, प्रगती
खो जाती है,
जब किसी लिखने वाले की
हत्या हो जाती है..
लेकिन सत्य का उद्गार न
होगा कम,
शस्त्रों की वार से झुकता
नहीं कलम,
निकलते है प्राण पर लफ्ज
छोड़ जाती है,
बीज निर्मिती का सौ जहनो
में बो जाती है
जब किसी लिखने वाले की
हत्या हो जाती है..
- ‘गौरव’ पांडे
बहुत खूब! आपने काफ़ी सरलता से एक लिखने वाले के जीवन की वो तमाम मुश्किलों को लफ़्ज़ों के ज़रिए महसूस कराया है! लिखते रहिए!
ReplyDeleteबहुत शुक्रिया श्रेया :)
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